Sunday, January 30, 2011

मेरे उस्ताद कागज पेर चंद लकीरें बनाते है..........

ज्ञान से ज्यादा मूल्यवान क्या है इस संसार में,
दान से बड़ा दूसरा कृत्य क्या है इस ब्रह्माण्ड में,
जो ज्ञान दान से हृदय प्रकाशित करते हैं मुझ तुच्छ का,
शत बार शीष झुकाता हूँ उन गुरुवों के सम्मान में !

गुरु के बिना कुछ सीखना, जैसे अन्धेरे में तीर चलाना है, ये गज़ल उस उस्ताद के लिये है, जो मुझे गजलों की बारीकियां बताता है, और अपूर्ण जी की ये पंक्तीयां भी यही कहती है..

1 comment:

  1. मेरे उस्ताद कगज़ पर चन्द लकीरें बनतें है,
    कभी अल्फ़ाज़ जोडते हैं कभी काफ़ियेह बनाते है.

    पेशानी पर हैरात युं गश खाती है,
    जब अपने रंग मे आकर कोई गज़ल सुनाते है.

    मुझे भी फ़ख्र होता है यें देख कर लोंगों,
    जब बोलते हैं मेरी रगों में इन्क़िलाब लातें है.

    मुझ जैसे शागिर्द पर रख के अपना हाथ,
    लफ़्ज़ों की जादुगरी का हुनर सिखाते है.

    ऐसी शख्सियत का ज़िक्रे ब्यां क्या हो,
    जिन्हे अहले इल्म फ़ख्रे हिन्दुस्ता बताते है.

    अपने फ़न की दौलत से नवाज़ कर मुझे अमि,
    राना जी इल्म की रियासत का सुल्ता बनते है
    -अमि'अजिम'

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